ढलते सूरज की लालीमा ने माहौल को बेहद रुमानी बना दिया था… लाल, नारंगी किरणें समंदर की लहरों के साथ मिलकर उसे और खूबसूरत बना रहीं थी. मसरूफ़ ज़िंदगी से कुछ पल चुराकर बहुत से लोग यहां आए थे… शायद इस हसीन शाम को अपनी ज़िंदगी की खूबसूरत यादों की किताब का पेज बनाना चाहते थे… और उस पेज पर यहां गुज़ारे खुशगवार पलों की याद लिखना चाहते थे… मां भी कुछ ऐसा ही कर रही थी.
समंदर की गीली रेत पर चलकर मानो वो ख़ुद को सातवें आसमान की ऊंचाई पर उड़ता महसूस कर रही थी. मां, जो आस पास लोगों के होने से ही थोड़ा रिज़र्व सी हो जाती थी, आज हर बात से बेख़बर और बेपरवाह थी. पानी की लहरें जैसे ही उसके परों का स्पर्श करतीं वो मुस्कुरा कर पैर ऊपर उठा लेती और फिर एक पैर से पानी उछाल देती. कभी झुक कर हाथ से पानी को समंदर की तरफ़ धकेल देती. लेकिन जिस तेज़ी से पानी लौट कर आता वो फिर खिलखिलाकर हंस देती. लग रहा था वो समंद के साथ खेल रही थी. मैं दूर बैठा ये अठखेलियां देख रहा था. इतना खुश मैंने मां को पहले कभी नहीं देखा था. मानो आज उनकी मुलाकात खुशी और ज़िंदगी दोनों से हुई थी.
मेरे ज़हन में तो मां की बस एक ही तस्वीर थी, जो बचपन से आज तक देखता आया था. घर परिवार की ज़िम्मेदारियों के बोझ से दबी हुई एक कुशल गृहणी की तस्वीर. जो परिवार की ज़िम्मेदारियां निभाते-निभाते ख़ुद अपनी ज़िंदगी जीना भूल गई थी. पिता जी को भी कभी उनके साथ दो बातें रूमानी करते ना देखा था. उनके लिए वो बस एक मशीन थीं जिसे हुक्म मिलते ही स्टार्ट हो जाना था और बिना रूके, बिना थके हुक्म की तामील करते जाना था.
जिस तरह मां और पिता जी को जीवन जीते देखा था, मुझे नहीं लगता कभी उन्होंने एक दूसरे को समझने या जानने की कोशिश भी की थी. या कभी एक दूसरे से अपने दिल की बात भी कही थी. मां को क्या पसंद है, क्या नहीं क्या कभी पिता जी ने पूछा था? शायद नहीं. कम से कम मुझे तो ऐसा बिल्कुल नहीं लगता. तभी तो, जब मां ने मुझ से कहा कि वो जीवन में एक बार पुरी जग्गनाथ के दर्शन करना चाहती हैं तो मैं तुरंत ही उन्हें यहां ले आया. मां, भगवान जन्नाथ के दर्शन कर शायद उतनी खुश नहीं हुईं जितना वो समंदर किनारे आकर हुई. ऐसा लगा मानो वो तो यहां समंदर देखने ही आई थीं. ज़िंदगी में एक बार समंदर देखने की ख़्वाहिश उनमें कब से दबी थी. ये मैंने आज जाना.
पिता जी कुछ दूर बैठे सुपारी कतर रहे थे. वो एक नज़र आसपास के माहौल पर डालते और एक नज़र मां पर. कभी उन्हें बड़े ग़ौर से भी देखते. मैं मन ही मन कुढ भी रहा था कि ये कैसे पति हैं जो अपनी अर्धांगिनी के मन को कभी पढ़ ना सके. उसके मन में क्या है जान ना सके.
पिता जी ने कभी मां से पूछा क्यों नहीं कि उन्हें क्या पसंद है और क्या नहीं. अगर मां ने कभी दिल की बात कही भी थी तो उसे अनसुना क्यों कर दिया. ऐसी भी क्या मजबूरी थी. कभी तो उन्हें घर परिवार की ज़िम्मेदारियों से मुक्त करके कुछ वक्त के लिए ही सही, यहां ले आते. एक छोटी सी तमन्ना मां के दिल में इतने वर्षों तक दबी रही. हैरत की बात है… ख़ैर, मुझे तो मां को खुश देख कर अच्छा लग रहा था. और खुद पर फख़्र हो रहा था कि चलो मैंने तो मां को समझा. उन्हें ख़ुश किया.
अंधेरा घना होने लगा था और मां पानी में खेलते-खेलते समंदर में आगे की तरफ़ बढ़ रही थी… मेरी नज़र कुछ देर के लिए उन पर से हट गई थी. लेकिन पिता जी शायद उन्हें लगातार देख रहे थे. तभी तो मां को गहराई की ओर जाते देख ज़ोर से आवाज़ लगाई.
“कहां भागी जा रही हो, आगे पानी गहरा है. वापस आओ.”
मां ने मुड़ कर हमारी ओर देखा. पिता जी की आवाज़ सुन उनकी मुस्कान फीकी पड़ गई. वो मद्धम कदमों से लौट आईं. और पिता जी के पास आकर बैठ गईं. ठंडी हवा और तेज़ हो गई थी. मां का आंचल और माथे पर बिखरे बाल अपने साथ उड़ा ले जा रही थी. शायद कह रही थी- “उठो, बैठ क्यों गई? समंदर बुला रहा है, चलो ना खेलते हैं.”
लेकिन मां ने एक हाथ से अपना आंचल पकड़ा और कमर में घोंस लिया. दूसरे हाथ से माथे पर बिखरे बाल कान के पीछे कर लिए, जैसे कहा हो- “ख़ामोश. औक़ात में रहो. बस हो गई मौज-मस्ती”.
“पानी में फिर जाना है?” पिता जी ने दबी मुस्कान के साथ धीरे से पूछा.
मां ने पिता जी की ओर देखा. चेहरे पर फिर वही मुस्कान लौट आई थी. और किसी छोटी बच्ची की तरह हां में सिर हिला दिया.
“अच्छा जाओ. लेकिन ध्यान रखना, ज़्यादा दूर ना जाना..”
मां खुशी से सिर हिलाकर तेज़ी से समंदर की तरफ़ दौड़ पड़ी.
पिता जी उन्हें मुस्कुराकर देखते रहे.
एक मीठी सी मुस्कान मेरे होठों पर भी आ गई और पिता जी से जो शिकवा था वो दूर हो गया.
Story by Afroz Jahan, Senior Journalist
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